Birthday Special: थोड़े मार्क्सवादी, तो थोड़े गांधीवादी, थोड़े राष्ट्रवादी, तो थोड़े समाजवादी थे 'दिनकर' 
 

यदि कोई उनकी रचना को पढ़ता है तो उसे पूरे विश्व का परिदृश्य समझ में आएगा. उनकी रचना का दार्शनिक, ऐताहिसक, सामाजिक और साहित्यिक स्वरूप उभर कर के आपके सामने आएगा. 
 

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है; दो न्याय अगर तो आधा दो, पर इसमें भी यदि बाधा हो, तो दे दो केवल पांच ग्राम, रखो अपनी धरती तमाम, ऐसी उम्दा रचना जिनके कलम से निकली आज हम उन्हें भूल गए। हम भूल गए बिहार और साहित्य के शान राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर को। दिनकर बस एक नाम नहीं हैं बल्कि पूरी की पूरी परिकल्पना हैं। परिकल्पना एक राष्ट्र की, परिकल्पना एक विकसित और सभ्य समाज की। भूलने की बात हम इसलिए कह रहे हैं कि पटना के दिनकर गोलंबर स्थित 'दिनकर पुस्तक केंद्र' में सन्नाटा पसरा है। यह सिर्फ सन्नाटा नहीं है बल्कि उस साहित्यकार से दूर होने की आहट है जिसने अपनी रचना के माध्यम से जन-जन की समस्या को उजागर किया। कुछ प्रगतिशील तबके या साहित्य की दुनिया से संबंध रखने वालों को छोड़ दें तो शायद ही किसी को याद हो कि आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की जयंती है। उन्हें याद करते हुए इस मौके पर हमने उनके पौत्र अरविंद कुमार सिंह से बात की। पेश है बातचीत के कुछ अंश-

सवाल: आप दिनकर जी को कितना जानते हैं? उन्हें लेकर आपके क्या विचार हैं?

जवाब: दादा जी को मैंने बहुत बचपन में देखा था। उस समय तक समझ तो इतनी विकसित नहीं हुई थी। लेकिन उनके छत्रछाया में रहने का यह असर है कि उनके व्यक्तित्व की अमिट छाप हम सभी भाई बहनों पर पड़ी। उनके साथ में जो समय गुजरा वह महत्वपूर्ण था। बाद में उन्हें गौर से पढ़ा, जितना ही पढ़ता जाता उतना ही उनकी रचनाओं में डूबता जाता। यदि कोई उनकी रचना को पढ़ता है तो उसे पूरे विश्व का परिदृश्य समझ में आएगा। उनकी रचना का दार्शनिक, ऐताहिसक, सामाजिक और साहित्यिक स्वरूप उभर कर के आपके सामने आएगा। 

अरविंद कुमार सिंह

दिनकर जी की लिखी एक किताब है 'शुद्ध कविता'। इस किताब में दुनिया भर में कविता के विषय में जो बदलाव आए हैं सभी का वर्णन है। मुझे तो सोच कर भी आश्चर्य होता है कि उस किताब को लिखने के लिए दिनकर जी का कितना विशाल अध्ययन रहा होगा। एक पुस्तक लिखने के लिए मेरे ख्याल से एक जीवन भी कम है। वहां दिनकर जी ने रश्मिरथी, कुरूक्षेत्र, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा जैसी तमाम किताबें लिखीं हैं। 

सवाल: इस सड़क पर पकवान और व्यंजन की कई दुकानें हैं। शाम के वक्त जिस तरह की भीड़ वहां देखने को मिलती है, वैसी भीड़ 'दिनकर पुस्तक केंद्र' में नहीं रहती। विशेषकर युवाओं में साहित्य को लेकर रूचि का अभाव देखा जा रहा है। इस पर आप क्या कहेंगे?

जवाब: सोशल मीडिया के आने से लोगों में पढ़ने की अभिरूचि घट गई है। ऊपरी तौर पर व्यक्ति पढ़ लेता है। लेकिन सतही स्तर पर लोग पठन-पाठन की क्रिया से दूर हो गए हैं। हालांकि, सोशल मीडिया एक वर्दान भी है और अभिशाप भी। दूसरी बात यह है कि पहले के लोग विषय के अलावा भी पढ़ते थे, साहित्य में भी रूचि लेते थे। लेकिन अब के छात्र विषय केंद्रित हो गए हैं। समय का भी अभाव है। 

दिनकर पुस्तक केंद्र 

सवाल: आईएएस अधिकारी, लेखक व आलोचक डॉ. शंभु नाथ ने भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित अपनी पुस्तक 'धूपछांही दिनकर' में लिखा है कि दिनकर के विचारों से लेकर उनके काव्य में भी विरोधाभास दिखाई पड़ता है। वह एक तरफ उर्वशी जैसी रचना लिखते हैं तो दूसरी तरफ कुरुक्षेत्र, वह गांधी को भी पसंद करते हैं और वहीं कार्ल मार्क्स को भी। आप डॉ. शंभु नाथ की बात से कितना सहमत हैं?

जवाब: अरविंद सिंह ने कहा कि इसे विरोधाभास नहीं कहा जा सकता। मैं इसे बहुमुखी प्रतिभा कहूंगा। दिनकर जी एक बहुआयामी व्यक्ति थे। दिनकर जनकवि थे। वह मानव मात्र के दु:ख से प्रभावित होते थे। वह थोड़े से मार्क्सवादी थे, तो थोड़े से गांधीवादी भी। थोड़े से राष्ट्रवादी थे, तो थोड़े से समाजवादी भी। थोड़े से क्रांतिधर्मी थे और थोड़े से परंपरावादी भी। जहां जो अच्छा लगा, उसे ही ग्रहण किया। 

सवाल: किसी युवा को दिनकर की किताब पढ़ने की सलाह देनी हो तो आप उन्हें कौन सी किताब बताएंगे?

जवाब: देखिए, यह अपनी अपनी अभिरूचि होती है। लेकिन यदि आपको अपने भीतर नैतिकता, ऊर्जा-ओज, मानवता के गुण पल्लवित करना है तो आपको रश्मिरथी को पढ़ना चाहिए। रश्मिरथी सामाजिक न्याय की संरचना का काव्य है। हालांकि, दिनकर ने भी इसे ऐसा सोचकर नहीं लिखा होगा। वहीं कुरुक्षेत्र समतावादी विचारों का काव्य है। वहीं कुरुक्षेत्र के एक पंक्ति को दोहराते हुए उन्होंने कहा- "शांति नहीं तब तक जब तक सुख -भाग न सबका सम हो। नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।" दिनकर कहते थे कुरुक्षेत्र की वाणी विश्वास की वाणी है। वहीं उर्वशी की बात करें तो यह दिनकर जी का चमत्कार है। रविंद्रनाथ टैगोर ने भी उर्वशी का वर्णन किया है, कालिदास ने भी लिखा है तो जाहिर है उर्वशी हमारे इतिहास में महत्व तो रखता है। अरविंद सिंह ने कहा कि हरिवंश राय बच्चन ने दिनकर जी की उर्वशी को पढ़ कर कहा था कि न मैंने ऐसी रचना इससे पूर्व में कभी पढ़ी है और नाहीं भविष्य में लिखी जाएगी। हालांकि, उन्होंने इच्छा जाहिर की थी कि ऐसी समृद्ध रचना आगे भी लिखी जाए। 

किताबें 

सवाल: राजनीति को लेकर दिनकर जी का क्या सोचना था?

जवाब: साहित्कार और कवि चाहते थे कि उनका समय राजनीति में नहीं जाए, वह साहित्य की हीं सेवा करें। वहीं दिनकर जी के भीतर कभी भी राजनीति को लेकर महत्वाकांक्षा नहीं थी। जब बंबई ( मुबंई) के एक अखबार ने उस समय प्रकाशित किया था कि दिनकर जी को मंत्रिमंडल में विस्तार मिलने वाला है और दिल्ली के बजाय वह बिहार में बैठे हैं तो उन्होंने कहा था कि दिल्ली में ही रहने से अगर मंत्रिमंडल में पद मिल जाए तो मुझे ऐसा मंत्री पद नहीं चाहिए। मैं इस चक्र में नहीं पड़ना चाहता। वैसे भी केवल दो मंत्रालय को छोड़ दिया जाए तो बाकी कोई मंत्रालय मेरे काम का नहीं है। यह दो मंत्रालय शिक्षा और कला मंत्रालय थे। 

सवाल: इस दुकान को खोलने के पीछे क्या उद्देश्य है?
 
जवाब: बहुत से लोग दिनकर की रचना, उनकी कविता खोजते हुए दिनकर भवन आते हैं। ऐसे में इस दुकान को शुरू करने के पीछे हमारा यही मकसद था कि दिनकर की सभी किताबें एक छत के नीचे मिल जाए फिर चाहे वह संस्कृति के चार अध्याय हो, या कुरुक्षेत्र या उन पर लिखी कोई आलोचना। व्यावसायिक लाभ का उद्देश्य नहीं है। कोई पाठक यदि चाहे तो हमारे दुकान पर आकर घंटों रूक कर किताबें पढ़ सकता है।

स्टोरी क्रेडिट- शाम्भवी शिवानी