आज का इतिहास: ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ केवल एक प्रतीक नहीं, भारत की स्वतंत्रता के लिए महिलाओं की वास्तविक युद्ध भागीदारी का जीवंत उदाहरण...

Aaj ka Itihaas 21 October: ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ केवल एक प्रतीक नहीं थी वह भारत की स्वतंत्रता के लिए महिलाओं की वास्तविक युद्ध भागीदारी का जीवंत उदाहरण थी.
 

Aaj ka Itihaas 21 October: स्वतंत्र भारत की पहली ‘स्वतंत्र सरकार’ 15 अगस्त 1947 को नहीं, बल्कि उससे 3 वर्ष, 9 महीने और 25 दिन पहले सिंगापुर में स्थापित हुई थी। 21 अक्टूबर 1943 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ‘आजाद हिंद सरकार’ की घोषणा की थी  यह भारत की पहली अस्थायी स्वाधीन सरकार थी, जिसे दुनिया के 9 देशों ने औपचारिक मान्यता दी थी।

आजाद हिंद सरकार के गठन के दो दिन बाद, यानी 23 अक्टूबर 1943 को नेताजी ने महिला सशक्तिकरण की दिशा में ऐतिहासिक कदम उठाया। उन्होंने आजाद हिंद फौज (INA) में महिलाओं की एक विशेष टुकड़ी  ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ का गठन किया और महिला सैनिकों को सैन्य प्रशिक्षण देना शुरू किया। यह रेजिमेंट दुनिया की पहली ऐसी महिला सैन्य इकाई थी, जिसका गठन, संचालन और नेतृत्व  पूरी तरह महिलाओं के हाथों में था।

 ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ की स्थापना

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 4 जुलाई 1943 को आजाद हिंद फौज (INA) की कमान संभाली थी यानी आजाद हिंद सरकार के गठन से 3 माह 17 दिन पहले। इसके कुछ ही दिनों बाद, 12 जुलाई 1943 को उन्होंने महिलाओं को सेना में शामिल करने की दिशा में ऐतिहासिक कदम उठाया और ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ की स्थापना की.

‘रानी झांसी रेजिमेंट’ में  1 हजार से अधिक  महिला सैनिक शामिल थीं। इस रेजिमेंट का नेतृत्व पहले कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन (लक्ष्मी सहगल) और बाद में जानकी थेवर ने किया था। रेजिमेंट की सभी महिला सैनिकों को गर्वपूर्वक ‘रानी’ कहकर संबोधित किया जाता था।

युद्ध के दौरान इन ‘रानियों’ ने असाधारण साहस दिखाया। उन्होंने लड़ाकू विमानों की बमबारी, नदियाँ पार करना, भूख और प्यास सहते हुए मोर्चा संभालना, और भीषण गोलाबारी के बीच जूझना इन सब जैसी कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए अंग्रेजों के खिलाफ वीरता से युद्ध लड़ा।

युद्ध की बेहद कठिन परिस्थितियों  जैसे लड़ाकू विमानों की बमबारी, नदियाँ पार करना, भूखे-प्यासे रहकर युद्ध लड़ना, भीषण गोलाबारी सहना और पानी की कमी से जूझना  के बावजूद ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ की वीरांगनाओं ने अंग्रेजों के खिलाफ डटकर युद्ध लड़ा.

‘रानी झांसी रेजिमेंट’ में बड़ी संख्या में वे महिलाएँ शामिल थीं, जिनके परिजन भारत छोड़कर दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों  जैसे मलाया, सिंगापुर और जापान  में बस गए थे। इन महिला सैनिकों में से कई ने भारत को कभी नजदीक से देखा भी नहीं था, फिर भी वे नेताजी सुभाष चंद्र बोस के राष्ट्रवादी विचारों से प्रभावित होकर देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित हो गईं।

जुलाई में शुरू हुआ प्रशिक्षण

‘रानी झांसी रेजिमेंट’ की लगभग 170 कैडेट्स का प्रशिक्षण  23 अक्टूबर 1942 में सिंगापुर में प्रारंभ हुआ। बाद में कैडेट्स की संख्या बढ़ने पर रंगून और बैंकॉक में भी प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए गए। नवंबर 1943 तक रेजिमेंट में 300 से अधिक कैडेट्स शामिल हो चुकी थीं। प्रशिक्षण में सैन्य अनुशासन, ड्रिल, रूट और रात्रि मार्च, राइफल चलाना, और हैंड ग्रेनेड का अभ्यास शामिल था  ताकि ये महिला योद्धाएँ हर मोर्चे पर सक्षम होकर देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ सकें.

बाद में कुछ चुनिंदा कैडेट्स को बर्मा के घने जंगलों में युद्ध लड़ने का विशेष प्रशिक्षण भी दिया गया। 30 मार्च 1944 को सिंगापुर स्थित प्रशिक्षण कैंप में रेजिमेंट की पहली पासिंग आउट परेड आयोजित की गई, जिसमें 500 महिला सैनिकों ने भाग लिया। इसके बाद उनमें से 200 कैडेट्स को नर्सिंग प्रशिक्षण के लिए चुना गया और इसी से ‘चांद बीबी नर्सिंग कोर’ का गठन हुआ।

युद्ध में भागीदारी और चिकित्सा सेवा

1944 में इंफाल अभियान के दौरान ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ की लगभग 100 महिला सैनिकों की टुकड़ी को बर्मा के मांडले क्षेत्र के मेम्यों नामक स्थान पर भेजा गया। वहीं, आईएनए अस्पताल में नर्सिंग कोर का गठन हुआ। इसके बाद ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ की करीब 200 कैडेट्स को घायल सैनिकों की देखभाल और उपचार में लगाया गया  जहाँ उन्होंने मोर्चे के पास रहकर सेवा और साहस दोनों का परिचय दिया।

भर्ती और प्रेरणा के स्रोत

अपनी पुस्तक में वेरा हिल्डेब्रांड लिखती हैं  “Women at War: Subhas Chandra Bose and the Rani of Jhansi Regiment” में लिखती हैं कि ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ की महिलाएँ नेताजी के राष्ट्रवादी और प्रेरणादायक विचारों से गहराई से प्रभावित थीं। नेताजी का स्वाधीनता के लिए बलिदान देने का आह्वान और उनका करिश्माई नेतृत्व इन महिला सैनिकों के भीतर देशभक्ति की अग्नि प्रज्वलित कर देता था।

रेजिमेंट में महिला सैनिकों की भर्ती के लिए सिंगापुर के अखबारों में विज्ञापन दिए जाते थे। भर्ती प्रक्रिया अनुशासित थी  अविवाहित महिलाओं को आवेदन पत्र पर अपने पिता के हस्ताक्षर, और विवाहित महिलाओं को अपने पति के हस्ताक्षर की आवश्यकता होती थी। यह जानकारी ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ की कमांडर लक्ष्मी सहगल ने 2008 में अपने एक साक्षात्कार  में  दी थी।

रेजिमेंट में अनेक महिला सैनिकों ने युद्धभूमि पर असाधारण वीरता और समर्पण का परिचय दिया। परंतु आजाद हिंद फौज के विघटन के बाद उन्हें अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा । कई महिला सैनिकों को जीविका के लिए दूसरों के घरों में खाना बनाना या बर्तन माँजना पड़ा, जबकि अनेक को सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा।

दुर्भाग्यवश, स्वतंत्र भारत की सरकारों ने भी लंबे समय तक उनके योगदान की अनदेखी की। 1973 तक आजाद हिंद फौज के सैनिकों को स्वाधीनता संग्राम सेनानी का दर्जा तक नहीं दिया गया था  यह उन वीरांगनाओं के साहस और बलिदान पर इतिहास का एक मौन प्रश्नचिह्न बनकर रह गया।

इनमें से प्रमुख महिला सैनिकों के बारे में जानते हैं।

लक्ष्मी सहगल

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के कहने पर लक्ष्मी सहगल ने ही रानी झांसी रेजिमेंट में महिला सैनिकों को जोड़ने का काम शुरु किया। वे रेजिमेंट की पहली महिला कमांडर और आजाद हिंद सरकार की एकमात्र महिला मंत्री थीं।

1938 में मद्रास मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने सिंगापुर में गरीबों के लिए एक क्लिनिक की स्थापना की। बाद में वे 1941 में ‘इंडियन इंडिपेंडेंस लीग’ से जुड़ीं और 1942 में जापानी कब्जे के दौरान युद्धबंदियों की चिकित्सा सेवा में लगी रहीं।

इसी दौरान 1943 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस से उनकी भेंट हुई। नेताजी के व्यक्तित्व और देशभक्ति से प्रेरित होकर उन्होंने आजाद हिंद फौज (INA) में शामिल होकर ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ को मज़बूती दी। 1944 में उनके नेतृत्व में महिला सैनिकों ने बर्मा में अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ा।

1945 में कैप्टन लक्ष्मी को ब्रिटिश सेना ने गिरफ्तार कर एक वर्ष तक रंगून में नज़रबंद रखा। मार्च 1946 में रिहाई के बाद वे भारत लौटीं और आजाद हिंद फौज के सैनिकों के बेसहारा परिवारों की सहायता के लिए धन एकत्र किया।

बाद में उन्होंने आईएनए के अधिकारी कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह किया और विभाजन के समय कानपुर में बस गईं। वहाँ उन्होंने 1947 के विभाजन विस्थापितों, 1984 के सिख विरोधी दंगा पीड़ितों, और भोपाल गैस त्रासदी से प्रभावित लोगों की सक्रिय रूप से मदद की।

देश के प्रति उनके असाधारण योगदान को देखते हुए, भारत सरकार ने 1998 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया।
2002 में उन्होंने वामपंथी दलों की उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति चुनाव भी लड़ा। कई दशकों तक निस्वार्थ सेवा करने के बाद, 23 जुलाई 2012 को कैप्टन लक्ष्मी सहगल का निधन हो गया  लेकिन उनके साहस, सेवा और समर्पण की विरासत आज भी प्रेरणा देती है.

जानकी डावर

जानकी डावर (जानकी अथि नहाप्पन) रानी झांसी रेजिमेंट में सबसे पहली भर्ती हुई महिला थीं। उस समय उनकी उम्र मात्र 17 वर्ष थी। असाधारण नेतृत्व क्षमता के कारण उन्होंने 19 वर्ष की आयु में रेजिमेंट की कमान संभाली।

25 मई 1925 को सिंगापुर के एक भारतीय तमिल परिवार में जन्मी जानकी डावर ने कभी भारत को देखा नहीं था, लेकिन वे नेताजी सुभाष चंद्र बोस के भाषणों और राष्ट्रवादी विचारों से गहराई से प्रभावित हुईं। उनके परिवार का भी नेताजी और आज़ाद हिंद आंदोलन के प्रति गहरा झुकाव था.

देशभक्ति की भावना से प्रेरित होकर जानकी डावर ने अपने आभूषण आज़ाद हिंद फौज को दान कर दिए थे। बाद में उन्होंने रानी झांसी रेजिमेंट में अपने नेतृत्व और साहस से यह साबित किया कि आज़ादी की लड़ाई केवल पुरुषों की नहीं, बल्कि महिलाओं की भी समान भागीदारी वाली लड़ाई थी।

जानकी थेवर के उत्साह और नेतृत्व क्षमता को देखते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें रानी झांसी रेजिमेंट का सेकेंड-इन-कमांड नियुक्त किया था। अप्रैल 1944 में जब रेजिमेंट की कमांडर लक्ष्मी सहगल घायल सैनिकों की चिकित्सा के लिए भेजी गईं, तब नेताजी ने जानकी थेवर को रेजिमेंट की कमांडर बना दिया।

सामान्यतः 19-20 वर्ष की आयु में किसी सैनिक को इतनी बड़ी जिम्मेदारी नहीं दी जाती, लेकिन जानकी थेवर इस पद पर पहुंचने वाली पहली महिला सैनिक बनीं। युद्ध के दौरान उन्हें ब्रिटिश सेना ने गिरफ्तार किया और कई महीनों तक पूछताछ और यातनाओं का सामना करना पड़ा।

युद्ध समाप्त होने के बाद जानकी थेवर मलाया (मलेशिया) में बस गईं। वहां उन्होंने मलाया कांग्रेस का गठन किया और स्थानीय भारतीयों के अधिकारों और सम्मान की लड़ाई लड़ी। लंबे समय तक उनके योगदान को नजरअंदाज किया गया, लेकिन वर्ष 2000 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया।
उनका निधन 9 मई 2016 को हुआ.

पहली महिला जासूस नीरा आर्या

भारत की पहली महिला जासूस के रूप में जानी जाने वाली नीरा आर्या, नेता जी सुभाष चंद्र बोस की करीबी और आईएनए की रानी झांसी रेजिमेंट की साहसी सैनिक थीं। उत्तर प्रदेश के बागपत में जन्मीं नीरा आर्या का विवाह जयरंजन दास, एक ब्रिटिश सेना अधिकारी से हुआ था।

हालांकि, दोनों के विचार बिल्कुल विपरीत थे नीरा आर्या एक सच्ची देशभक्त थीं, जबकि उनका पति अंग्रेजों का समर्थक था। जब जयरंजन दास ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की हत्या की साजिश रची, तो नीरा ने अपने देशप्रेम और कर्तव्य को प्राथमिकता देते हुए गोलियों की बौछार कर अपने ही पति को मार गिराया।

इस घटना ने उन्हें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में अटल साहस और त्याग की प्रतीक के रूप में अमर कर दिया.

अपने ही पति की हत्या कर नेताजी की जान बचाने वाली नीरा आर्या को इस साहसिक कदम के बाद अंग्रेजों ने काला पानी की सजा दी। पूछताछ के दौरान जब उनसे नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में जानकारी मांगी गई, तो उन्होंने मौन रहकर देश के प्रति अपनी निष्ठा साबित की।

उनके इस मौन का बदला अंग्रेजों ने अमानवीय यातनाओं से लिया। कोलकाता से अंडमान जेल भेजे जाने के दौरान, उनकी बेड़ियां काटने के लिए बुलाए गए लोहार ने, जेलर के आदेश पर, उनकी चमड़ी तक काट दी। टांगों पर वार किए गए, और यातना की पराकाष्ठा तब हुई जब जेलर ने उनका ब्लाउज फाड़कर एक स्तन तक काट डाला। इसके बावजूद नीरा आर्या ने नेताजी के बारे में एक शब्द तक नहीं कहा।

स्वतंत्रता मिलने के बाद भी नीरा आर्या को न सरकार ने सम्मान दिया, न समाज ने सहारा। रिहाई के बाद वह हैदराबाद के फलकनुमा इलाके में एक झोपड़ी में रहने लगीं। जीविका चलाने के लिए फूल बेचने पड़ी, और जब वही झोपड़ी सरकार ने “अवैध कब्ज़ा” बताकर गिरा दी, तो वह बेघर और बेसहारा हो गईं।

26 जुलाई 1998 को इस वीरांगना का देहांत हो गया  एक ऐसी स्वतंत्रता सेनानी के रूप में, जिसे देश ने भुला दिया, लेकिन जिसने देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था

सबसे कम आयु की सैनिक लक्ष्मी नायर

‘रानी झांसी रेजिमेंट’ की सबसे कम उम्र की महिला सैनिक लक्ष्मी नायर थीं  मात्र 14 वर्ष की आयु में उन्होंने आज़ाद हिंद फ़ौज में प्रवेश किया। भर्ती परीक्षा में उनके उत्कृष्ट प्रदर्शन को देखते हुए उन्हें रेजिमेंट में शामिल किया गया था। उनके माता-पिता स्वयं नेताजी के विचारों से गहराई से प्रभावित थे, और उन्होंने ही अपनी बेटी को देश की आज़ादी के लिए आगे बढ़ने की प्रेरणा दी थी।

रेजिमेंट में शामिल महिलाएं विभिन्न स्रोतों से प्रेरित थीं। उदाहरण के लिए, रसम्मा नवरेद्नम ने प्रतिबंधित पुस्तक “जलियांवाला बाग  अमृतसर नरसंहार” पढ़ी थी और 1919 के उस हत्याकांड का बदला लेने की भावना से आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हुईं। वहीं सौम्य ईवा जेनी मूर्ति ने नर्स के रूप में योगदान देने के उद्देश्य से रेजिमेंट में प्रवेश किया, और रमा मेहता ने एक प्रशिक्षित सैनिक के रूप में जुड़कर युद्ध प्रशिक्षण प्राप्त किया।

रेजिमेंट में कई ऐसी महिलाएं भी थीं जिनके परिवार सीधे आज़ाद हिंद फ़ौज से जुड़े थे। जैसे आशा सहाय, जिनकी मां नेताजी की चचेरी बहन थीं और पिता आनंद सहाय, आज़ाद हिंद सरकार में मंत्री थे। मई 1945 में आनंद सहाय ने अपनी 16 वर्षीय बेटी आशा को जापानी बमवर्षक विमान से नागासाकी से बैंकॉक तक एक जोखिमभरी यात्रा पर भेजा ताकि वह ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ का हिस्सा बन सके।

युद्ध अनुभव व चुनौतियां

कुछ इतिहासकारों ने यह दावा किया कि ‘रानी झांसी रेजिमेंट’ ने कभी युद्ध में भाग नहीं लिया, लेकिन ऐतिहासिक साक्ष्य इसके विपरीत हैं। कई मौकों पर महिला सैनिकों ने सीधा मोर्चा संभाला और दो बार अंग्रेज़ों की गोरिल्ला सेना से भिड़ंत हुई  जिनमें दो वीरांगनाओं ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए।

‘रानी झांसी रेजिमेंट’ केवल एक प्रतीक नहीं थी वह भारत की स्वतंत्रता के लिए महिलाओं की वास्तविक युद्ध भागीदारी का जीवंत उदाहरण थी.