नीतीश के पुराने साथी पीछे छूटे? कविता सिंह–अजय सिंह को क्यों नजरअंदाज कर रही जेडीयू
Bihar News: सिवान की राजनीति में एक सवाल लगातार गूंज रहा है, क्या जनता दल (यूनाइटेड) अपनी ही मजबूत राजनीतिक विरासत को धीरे-धीरे दरकिनार कर रहा है? यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि सिवान की पहली महिला सांसद रहीं कविता सिंह आज जेडीयू की मुख्यधारा की राजनीति से लगभग गायब नजर आ रही हैं।
कविता सिंह की पहचान सिर्फ डॉ. अजय सिंह की पत्नी या पूर्व विधायक जगमातो देवी की पुत्रवधू भर नहीं है। यह जरूर उनकी राजनीतिक विरासत रही है, लेकिन उनकी अपनी सियासी यात्रा और जनाधार भी उतना ही मजबूत रहा है। इसके बावजूद बीते कुछ वर्षों में जिस तरह से उन्हें और उनके परिवार को टिकट की राजनीति से बाहर किया गया, उसने कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
दरौंदा से विधानसभा तक, भरोसे की राजनीति
कविता सिंह ने पहली बार 2011 में जेडीयू के टिकट पर दरौंदा विधानसभा सीट से जीत दर्ज की और विधानसभा पहुंचीं। इसके बाद 2015 में जेडीयू ने एक बार फिर उन पर भरोसा जताया और उन्होंने लगातार दूसरी जीत दर्ज कर पार्टी के भरोसे को मजबूत किया। इस दौरान वे दरौंदा में विकास कार्यों और सामाजिक जुड़ाव को लेकर सक्रिय रहीं।
कविता सिंह की सियासी जमीन दरअसल उसी विरासत से मजबूत हुई, जिसकी नींव उनकी सास जगमातो देवी ने रखी थी।
जगमातो देवी: जंगलराज के दौर में सियासी साहस
सिवान की राजनीति में जब जगमातो देवी का नाम आता है, तो लोग उन्हें उस दौर के साहस और साफ सियासत से जोड़कर देखते हैं। वर्ष 2005 में उन्होंने रघुनाथपुर से निर्दलीय जीत दर्ज की, जब बिहार में तथाकथित जंगलराज अपने चरम पर था और सिवान को उसका गढ़ माना जाता था।
उस समय जगमातो देवी ने बिना शपथ लिए ही नीतीश कुमार की एनडीए सरकार को बिना शर्त समर्थन दिया। उनका मानना था कि विधायक पद चला जाना स्वीकार्य है, लेकिन जंगलराज और उसके सरगनाओं से समझौता नहीं। इस लड़ाई की कीमत उन्होंने अपने परिवार के चार सदस्यों की जान देकर चुकाई, लेकिन अपने सिद्धांतों से पीछे नहीं हटीं।
नवंबर 2005 में जेडीयू के टिकट पर उन्होंने फिर जीत दर्ज की। 2010 में परिसीमन के बाद दरौंदा सीट से तीसरी बार विधायक बनना इस बात का संकेत था कि जनता उनके काम और साहस को पहचानती है।
सांसद बनीं, फिर टिकट कटा
2019 में कविता सिंह ने इतिहास रचते हुए सिवान की पहली महिला सांसद बनने का गौरव हासिल किया। लेकिन इसके बाद राजनीतिक घटनाक्रम ने चौंकाया। पिछले लोकसभा चुनाव में उनका टिकट काट दिया गया। फिर विधानसभा चुनाव में न तो कविता सिंह और न ही उनके पति डॉ. अजय सिंह को जेडीयू ने मौका दिया।
डॉ. अजय सिंह को सिवान में एक फायरब्रांड नेता के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने वर्ष 2000 के आसपास जंगलराज के कुख्यात चेहरों को सीधी चुनौती दी और उनके राजनीतिक प्रभाव को तोड़ने में अहम भूमिका निभाई।
समर्थन के बावजूद उपेक्षा?
सबसे अहम सवाल यही है कि टिकट कटने के बावजूद कविता सिंह और डॉ. अजय सिंह एनडीए और जेडीयू के साथ खड़े रहे। जिन उम्मीदवारों को लोकसभा और विधानसभा चुनाव में टिकट दिया गया, उनके लिए इस परिवार ने खुलकर समर्थन किया और जीत में मदद भी की।
इसके बावजूद आज सिवान की राजनीति में यह परिवार हाशिये पर खड़ा दिखाई देता है। दिलचस्प यह भी है कि जिन पर कभी जंगलराज से जुड़ने के आरोप लगे, उन्हें टिकट मिला, लेकिन नीतीश कुमार को अपना आदर्श मानने और हर फैसले में साथ देने वाले इस परिवार को पीछे छोड़ दिया गया।
बदले सिद्धांत या बदली राजनीति?
यह सवाल अब जेडीयू के लिए असहज होता जा रहा है कि क्या पार्टी अपने पुराने संघर्षशील साथियों को भूलती जा रही है? क्या वह नीतीश कुमार, जो कहा करते थे कि जेडीयू अपने मजबूत कार्यकर्ताओं के भरोसे चलती है, अब उन कार्यकर्ताओं को पहचानना भूल गए हैं?
या फिर यह किसी बड़ी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है, जिसमें पुराने चेहरों को धीरे-धीरे किनारे किया जा रहा है?
आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि नई सरकार और संगठनात्मक संरचना में डॉ. अजय सिंह या कविता सिंह को कोई भूमिका मिलती है या नहीं। अगर ऐसा नहीं होता, तो यह सवाल और गहराएगा कि क्या जेडीयू अपने कठिन समय के साथियों को सियासी हाशिये पर अकेला छोड़ चुकी है।
सिवान की राजनीति में यह सिर्फ एक परिवार की कहानी नहीं, बल्कि उस भरोसे की परीक्षा है, जिस पर कभी जेडीयू की सियासत खड़ी मानी जाती थी।







