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गुरु_पूर्णिमा के शुभ अवसर पर खगड़िया के समसपुर ग्राम में कार्यक्रम का आयोजन, परमपूज्य परमहंस स्वामी आगमानंद का आशीर्वाद प्राप्त

 
गुरु_पूर्णिमा के शुभ अवसर पर #खगड़िया के समसपुर ग्राम में आयोजित कार्यक्रम में परमपूज्य परमहंस स्वामी आगमानंद जी महाराज के सान्निध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ । अवसर पर संबोधन के क्रम में मैंने भारत की प्राचीन बौद्धिक परंपरा का स्मरण करते हुए कहा कि हमारी संस्कृति में गुरु का महत्व सर्वाधिक रहा है और यह स्वाभाविक भी है जब 'भारत' शब्द का निर्माण ही 'भा' और 'रत' के अद्भुत संयोग से बना हो जिसमें 'भा' का तात्पर्य 'ज्ञान' और 'रत' का तात्पर्य उसमें 'लीन' होने से है। जिस भूमि में ज्ञान का महत्व सर्वाधिक रहा वहाँ गुरुजनों के आने पर सम्राटों द्वारा भी सिंहासन छोड़ दिया जाना अत्यंत स्वाभाविक था। गुरू को परिभाषित करने के निमित्त प्राचीन श्लोक
"गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते। अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥"
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को उद्धृत करते हुए मैंने कहा कि 'गु'कार का तात्पर्य अंधकार, और 'रु'कार का तात्पर्य तेज से है। अतः जो अंधकार का (ज्ञान का प्रकाश देकर) निरोध करता है, वही गुरु कहा जाता है।
जीवन रूपी अस्तित्व का परम लक्ष्य सत्य का साक्षात्कार है। प्राचीन काल से ही मानव मस्तिष्क सृष्टि के सृजन के रहस्य तथा मानव अस्तित्व के अर्थ पर विचारण करता हुआ सत्य से साक्षात्कार हेतु प्रयासरत रहा है। यदि हम भारतीय चिंतन के क्रम में विचारों का स्मरण करेंगे तो सर्वप्रथम ऋग्वेद के नासदीय सूक्त का स्मरण आएगा जिसके प्रारंभ
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"नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्। किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ।"
में आश्चर्य और जिज्ञासा प्रकट की गयी है कि सृष्टि कब, क्यों और किसके द्वारा अस्तित्व में आई और यह कि इसका उत्तर सम्भवतः देवता भी नहीं जानते होंगे क्योंकि वे भी सृष्टि की उत्पत्ति के बाद ही उत्पन्न हुए। इसी सूक्त में आगे
"कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्। सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा।"
व्यक्त किया गया है कि सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय व्यक्त किया गया है कि सर्वप्रथम उस परमतत्त्व के मन मे 'काम' अर्थात् सृष्टि रचने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुयी और वहीं से सृजन प्रारंभ हुआ । सृजन का जो सर्वप्रथम बीज रूप कारण हुआ, उसे भौतिक रूप से विद्यमान जगत् में ऋषियों (कवियों/ मनीषियों) ने अपने ज्ञान से अनुभव कर लिया । नासदीय सूक्त को यदि हम सृजन के रहस्य की सर्वप्राचीन अभिव्यक्ति मानें तो स्पष्ट होगा की परमतत्व का अंश ही सर्वत्र विद्यमान है और इसी को व्यक्त करते हुए आगे ईशावास्योपनिषद (शुक्ल #यजुर्वेद) में
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवा वसिष्यते ।।" का निहित भाव पाते हैं जो वेदांत का आधार है, जिसके उदय का भौगोलिक क्षेत्र प्राचीन बिहार है।
परमतत्त्व के इस भाव को समझना आसान नहीं है और इसमें गुरु की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जो अस्तित्व को सार्थक बनाती है। इस अवसर पर बिहार में वेदांत के दर्शन का स्मरण करते हुए मैंने उस प्राचीन कथा का उल्लेख किया जिसमें बात उस समय की थी जब राजा जनक की सभा का समय निर्धारित था और उसके पूर्व वह तैयार होकर अपने उद्यान में बैठकर वहां जाने हेतु आमंत्रण की प्रतीक्षा कर रहे थे । इसी क्रम में वह तब अचानक आश्चर्यचकित हो उठे जब उन्होंने देखा कि उनके सभी मंत्री, सभासद तथा प्रधान सेनापति भी उद्यान में ही उनकी ओर तीव्र गति से भागते हुए आ रहे हैं। पृच्छा करने पर हतप्रभ से सेनापति ने बताया कि शत्रु सेना द्वारा अचानक आक्रमण कर दिया गया था और यह कि शत्रु सेना दुर्ग में भी प्रविष्ट हो चुकी थी तथा तीव्र गति से राजमहल की ओर आ रही थी। यह सुनकर जनक तुरंत ही किसी प्रकार युद्ध के लिए तत्पर हुए तथा रणभूमि में अपने सभी वीर योद्धाओं के साथ संलग्न हो गए। शत्रु के साथ भीषण युद्ध हुआ जिसमें जनक भी चोटिल हो गए परंतु परिणाम प्रतिकूल रहा चूंकि कुछ ही समय में सेनापति सहित उनके सभी प्रधान योद्धा हताहत हो गए और शत्रु द्वारा उन्हें भी बंदी बना लिया गया ।
युद्ध के उपरांत राज्य से निष्कासन का दंड निर्धारित हुआ तथा संपूर्ण राज्य में इस प्रकार की घोषणा कर दी गई कि यदि कोई जनक का सहयोग करेगा तो वह भी राजदंड का भोगी होगा । ऐसी विषम परिस्थिति में कल तक नरेश रहे जनक मन से अत्यंत व्यथित हो उठे तथा पैदल ही मिथिला की सीमा तक चलने लगे । मार्ग में हर व्यक्ति उन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देखता हुआ मिलता तथा भोजन अथवा जल भी कहीं किसी के द्वारा नहीं मिला । दुखी जनक अंततः जब मिथिला की सीमा के पार पहुँचे, तब उन्होंने देखा कि एक स्थान पर यज्ञ चल रहा था और पधारे आगंतुकों के लिए भोजन प्रस्तुत किया जा रहा था । अत्यंत थके हुए तथा क्षुधा पीड़ित जनक भी भोजन प्राप्त करने हेतु उसी पंक्ति में लग गए और अपने अवसर की ओर बढ़ने लगे । परंतु दुर्भाग्य ने कुछ ऐसा घेर रखा था कि जब उनकी बारी आई तब तक भोजन समाप्त हो गया और चावल के कुछ कण ही शेष रह गए । खैर उन कणों को भी उन्होंने एक पात्र में ले लिया और ग्रहण करने हेतु एक स्थान पर बैठने लगे। इसी क्रम में आकाश से अचानक एक पक्षी ने अचानक झपट्टा मारकर पात्र को नष्ट कर दिया। अब तो जनक और भी अत्यधिक व्यथित हो उठे और जीवन के गूढ़ रहस्यों तथा अपने दुर्भाग्य के कारणों पर चिंतन करने लगे। वह सोच रहे थे कि ऐसा परिवर्तन अचानक कैसे हो गया। अभी तक वह संपूर्ण मिथिला के स्वामी थे और कुछ ही समय में भोजन मिलने तक पर ग्रहण लग चुका था। तब इस अवस्था में चिंतनरत जनक को किसी ने अचानक पीछे से थपथपाते हुए कहा "हे राजन ! कहाँ खोए हैं? सभा का समय हो गया है !"
यह सुनकर जनक जब सचेत हुए तब उनको आभास हुआ कि उद्यान में सोचते-सोचते वह सुषुप्तावस्था से स्वप्नावस्था में लीन हो चुके थे और जो भी उनके साथ घटित हुआ था वह स्वप्न मात्र ही था। यह जानकर जनक और भी परेशान हो गए। वह सोचने लगे कि स्वप्न में जो कुछ भी हुआ था वह तो सत्य ही प्रतीत हो रहा था और उन्होंने उस अवस्था में क्षुधा सहित अन्य पीड़ाओं को भी साक्षात अनुभव किया था । यदि वह भ्रम मात्र था तो फिर जो सामने हो रहा था, वह क्या था ? सत्य किसे माना जाए, यह सोचकर जो भी मिलता, उससे यही पूछते "ये सच या वो सच?"
उनके इस विचित्र व्यवहार को देखकर मंत्रियों एवं सभासदों सहित राजमहल में सभी परेशान थे परंतु जनक टस से मस नहीं हुए और यही पूछते रहे "ये सच या वो सच?" कुछ दिवसों तक ऐसा ही चलता रहा और राजमहल में किसी को कुछ भी नहीं सूझ रहा था। ऐसे में जब अचानक #महर्षि_अष्टावक्र का आगमन हुआ तब सबने उनको इस विषय में बताया । जब वह जनक के पास पहुंचे, तब उन्हें देखकर भी वही प्रश्न "हे महर्षि ! ये सच या वो सच?"
तब अष्टावक्र ने अपनी योगदृ‌ष्टि से वस्तुस्थिति को समझा और संबोधित किया "हे राजन! न ये सच, न वो सच, तुम ही हो सच !"
गहन चिंतन पर इसका भावार्थ यही है कि व्यक्ति का मूल अस्तित्व वह परम सत्य ही है जिसे माण्डूक्योपनिषद् (मंत्र 7) में अभिव्यक्त किया गया
"नान्तः प्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतः प्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञ नाप्रज्ञम् ।
अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणं अचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥"
अर्थात "वह न अन्तः प्रज्ञ है न बहिष्प्रज्ञ है, न उभय-प्रज्ञ अर्थात् अन्तः एवं बहिष्प्रज्ञ एक साथ है, न वह प्रज्ञान-घन है, न प्रज्ञ (ज्ञाता) है, न अप्रज्ञ (अज्ञाता)। वह जो अदृष्ट है, अव्यवहार्य है, अग्राह्य है, अलक्षण है, अचिन्त्य है, अव्यपदेश्य अर्थात् अनिर्देश्य है, 'आत्मा' के ऐकान्तिक अस्तित्व का बोध ही जिसका सार है, 'जिसमें' समस्त प्रपञ्चात्मक जगत् का विलय हो जाता है, जो 'पूर्ण शान्त' है, जो 'शिवम्' है-मंगलकारी है, और जो 'अद्वैत' है, 'उसे' ही चतुर्थ (पाद) माना जाता है; 'वहीं' है 'आत्मा', एकमात्र 'वही' 'विज्ञेय' (जानने योग्य तत्त्व) है।"
जिसका तात्पर्य यही है कि आत्मा चतुष्पाद है अर्थात उसकी अभिव्यक्ति की चार अवस्थाएँ हैं- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय । चतुर्थ या तुरीय अन्य तीन अवस्थाओं यथा जागृतावस्था, सुषुप्तावस्था तथा स्वप्नावस्था में उसी प्रकार स्थित है जैसे मोतियों की माला के मध्य धागा रहता है जिसमें बाहर से देखने पर अंतस्थित धागे को कोई देख नहीं पाता । जब व्यक्ति उस परम तत्व को अनुभव कर लेता है, उसका जीवन स्वतः सार्थक हो जाता है और यात्रा निरर्थक रूप में गतिमान नहीं रहती ।
आगे गुरू के महत्व को और स्पष्ट करते हुए मैने आदि शंकराचार्य और आचार्य कुमारिल भट्ट का स्मरण किया । आदि शंकराचार्य जब ओंकारेश्वर में उनके गुरु श्रीमदगोविंदभगवद्याद के संरक्षण में शिक्षा ग्रहण कर दिग्विजय यात्रा पर निकलना चाहते थे तब उन्हें उसके पूर्व आचार्य कुमारिल भट्ट से ब्रह्मसूत्रों पर विमर्श करने का आदेश प्राप्त हुआ । आचार्य शंकर जब समुद्र के किनारे आचार्य कुमारिल भट्ट के पास पहुंचें उस समय कुमारिल भट्ट अपनी चिता सजाकर बैठ चुके थे चूंकि बौद्ध मत को गहनता से समझने के लिए उन्होंने बौद्ध भिक्षु के छद्मवेष में बौद्ध विहार में प्रवेश प्राप्त कर लिया था और जब अचानक एक दिन बौद्ध गुरु के द्वारा वेदों की तीव्र निंदा की जाने लगी तब अत्यंत दुखित होकर उनके आंसु टपकने लगे थे जिससे सभी ने उनके वास्तविक स्वरूप को पहचान लिया। बौद्ध गुरु ने जब उन्हें पर्वत की चोटी से फेंकने का दंड निर्धारित किया तब उन्होंने कहा कि "यदि वेद सत्य हैं तो उनका बाल भी बांका नहीं तो संभवतः आंख को भी कुछ नहीं होता। हालांकि तत्पश्चात उन्होंने वापस बौद्ध विहार पहुंचकर सभी को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया परंतु गुरू को धोखे में रखकर उन्होंने प्रायश्चित स्वरूप अपनी चिता में जलकर मृत्यु को प्राप्त करने का निर्णय लिया । आदि शंकराचार्य को शास्त्रार्थ के लिए उन्होंने महिष्मति (महिषी, सहरसा) निवासी अपने शिष्य मंडन मिश्र का पता बताकर विदा कर दिया। आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र का प्रसंग सभी जानते हैं परंतु आगे जब दिग्विजय यात्रा पर काशी में उनका साक्षात्कार एक चांडाल के साथ हुआ और चांडाल को मार्ग से हटने के लिए कहने पर चांडाल द्वारा पृच्छा की गई कि "कौन हटे? शरीर या आत्मा", तब कहीं आदि शंकराचार्य को भी लगा कि जिस वेदांत के संदेश को लेकर वह चल रहे थे, उसमें उनका ज्ञान भी अपूर्ण था और वह एक चांडाल से भेद कर रहे थे । तब आदि शंकराचार्य ने चांडाल को भी अपना गुरू मानकर चरण स्पर्श किया और उनसे आशीर्वाद प्राप्त
किया था ।
भारतीय चिंतन में अनेक ऐसे प्रसंग हैं जो प्रेरित करते हैं। #LetsInspireBihar का संदेश वेदांत की उसी बृहत दृष्टि पर आधारित है जिसमें हर व्यक्ति ही नहीं अपितु हर आत्मा में भी उसी परमतत्व के अंश को देखने की कल्पना थी और कोई भेदभाव नहीं था। जिस सभ्यता में ऐसी दृष्टि का समावेश हो जाए, वह हर भेदभाव से परे हो जाता है और तब ही बड़े स्तर पर जोड़कर नव सर्जन करने में सक्षम हो पाता है। यह हमारे पूर्वजों के चिंतन की उत्कृष्टता ही थी जिसके कारण प्राचीन काल से ही हम सकारात्मक अपवाद प्रस्तुत कर सके और अखंड भारत के साम्राज्य सहित विश्वविद्यालयों का निर्माण कर सके । हमें अपने स्वत्व का स्मरण करना होगा। गुरु परंपरा का स्मरण एवं धारण करना होगा। यात्रा गतिमान है ! सभी को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएं !