किसने पहली बार दुर्गापूजा की थी? पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा का कब और क्या है इतिहास, जानिए पूरी कहानी...
Durga Puja Special: इस बार नवरात्र 22 सितंबर से शुरू होकर एक अक्टूबर तक चलेगी. भारत में मौसम का ये वो समय होता है जब लोगों को प्रचंड गर्मी से राहत मिलना शुरू होती है और हल्की ठंड पड़ने लगती है. बंगाल में उत्साह का माहौल छा जाता है, क्योंकि यह देवी दुर्गा के घर वापसी का समय है. नवरात्र को दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है. इस दौरान मां के नौ रूपों की उपासना होती है. पश्चिम बंगाल खासतौर से कोलकाता में दुर्गा पूजा की रौनक देखते ही बनती है. भव्य पंडालों में दुर्गा जी की आकर्षक मूर्तियां लगायी जाती हैं. वहीं से देश के दूसरे हिस्सों में भी दुर्गा पूजा मनाने का चलन फैला.
पश्चिम बंगाल में हिंदू परंपरा के अनुसार, इसे साल का सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है. पूरा बंगाल इस समय मां के आने की खुशी में विलीन होता है. समूचे पश्चिम बंगाल में इस त्यौहार के वक़्त दुल्हन की तरह सजाया जाता है. इसीलिए पारंपरिक त्योहार के रूप में दुर्गा पूजा बंगालियों के लिए खास है.

पश्चिम बंगाल की दुर्गापूजा आज विश्व प्रसिद्ध है. हर साल पूरी दुनिया कई देशों से लोग बंगाल की दुर्गापूजा देखने आते हैं. आज भव्य मंडप, चकाचौंध कर देने वाली रोशनी के बीच चमचमाती मां दुर्गा की प्रतिमा होती है लेकिन क्या आप जानते हैं कि बंगाल की यह भव्य दुर्गापूजा कब शुरू हई ? किसने पहली बार दुर्गापूजा की थी? आखिर दुर्गापूजा करने का कारण क्या था? सनातन धर्मानुसार इतने देवताओं के होने के बाद 10 भुजा वाली मां दुर्गा की पूजा ही क्यों? ऐसे कई सवाल लोगों के मन में उठते हैं तो आईए बतातें हैं आपको बंगाल की दुर्गा पूजा वृहत इतिहास. इतिहास के गलियारों से बंगाल के पहली दुर्गापूजा के पीछे की बड़ी और रोचक कहानी...

बंगाल के इतिहास के पन्नों को पलटें तो हमें पता चलता है कि लगभग 16वीं शताब्दी के अंत में 1576 ई में पहली बार दुर्गापूजा हुई थी. उस समय बंगाल अविभाजित था जो वर्तमान समय में बांग्लादेश है. इसी बांग्लादेश के ताहिरपुर में एक राजा कंसनारायण हुआ करते थे. कहा जाता है कि 1576 ई में राजा कंस नारायण ने अपने गांव में देवी दुर्गा की पूजा की शुरुआत की थी. कुछ और विद्वानों के अनुसार मनुसंहिता के टीकाकार कुलुकभट्ट के पिता उदयनारायण ने सबसे पहले दुर्गा पूजा की शुरुआत की. उसके बाद उनके पोते कंसनारायण ने की थी. इधर कोलकाता में दुर्गापूजा पहली बार 1610 ईस्वी में कलकत्ता में बड़िशा (बेहला साखेर का बाजार क्षेत्र) के राय चौधरी परिवार के आठचाला मंडप में आयोजित की गई थी। तब कोलकाता शहर नहीं था. तब कलकत्ता एक गांव था जिसका नाम था 'कोलिकाता'.

विवेकानंद विश्वविद्यालय में संस्कृत और दर्शन के प्रोफेसर राकेश दास ने बताया कि राजा कंसनारायण ने अपनी प्रजा की समृद्धि के लिए और अपने राज्य विस्तार के लिए अश्वमेघ यज्ञ की कामना की थी. उन्होंने यह इस बात की चर्चा अपने कुल पुरोहितों से की. ऐसा कहा जाता है कि अश्वमेघ यज्ञ की बात सुनकर राजा कंस नारायण के पुरोहितों ने कहा कि अश्वमेघ यज्ञ कलियुग में नहीं किया जा सकता. इसे भगवान राम ने सतयुग में किया था पर अब कलियुग करने का कोई फल नहीं है. इस काल में अश्वमेघ यज्ञ की जगह दुर्गापूजा की जा सकती है. तब पुरोहितों ने उन्हें दुर्गापूजा महात्मय बारे में बताया. पुरोहितों ने बताया कि कलियुग में शक्ति की देवी महिषासुरमर्दिनी मां दुर्गा की पूजा करें. मां दुर्गा सभी को सुख समृद्धि, ज्ञान और शाक्ति सब प्रदान करती हैं. इसी के बाद राजा कंसनारायण ने धूमधाम से मां दुर्गा की पूजा की. तब से आज तक बंगाल में दुर्गापूजा का सिलसिला चल पड़ा.
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प्रोफेसर राकेश दास ने बताया कि इतिहास के अनुसार राजा कंसनारायण की पूजा के पहले दुर्गापूजा की व्याख्या देवी भागवतपुराण और दुर्गा सप्तशती में मिलती है।दुर्गा सप्तशती और देवी भागवतपुराण में शरद ऋतु में होने वाली दुर्गापूजा का वर्णन है. देवी भागवतपुराण में इसका भी उल्लेख है कि भगवान राम ने लंका जाने से पहले शक्ति के लिए देवी मां दुर्गा की पूजा की थी. देवी भागवत पुराण की रचना की तिथि पर विद्वानों में मतभेद है. कुछ विद्वानों का मानना है कि यह एक प्राचीन पुराण है और छठवीं शताब्दी ईस्वीं से पहले रचा गया था. कुछ के अनुसार इस पुस्तक की रचना 9वीं और 14वीं शताब्दी के मध्य ई. बीच हुई थी.

बंगाल में साढ़े 550 साल से अधिक पुरानी पूजा में विधियों को लेकर थोड़ा परिवर्तन हुआ है. फिर भी राज परिवारों में होने वाली पारंपरिक दुर्गापूजा चार अलग अलग विधियों में होती है. विद्वानों की माने तो पहली विधि कालिकापुराण की विधि के अनुसार है. दूसरी विधि वृहतनंदीकेश्वर विधि के अनुसार है. तीसरी विधि देवीपुराण के अनुसार और चौथी व आखिरी विधि मत्स्य पुराण के अनुसार है. राज्य के हर जिलों में होनी वाली इन्हीं चार विधियों में होती है. फिलहाल पूजा की मूल विधियां समान है पर अब थोड़ा बहुत अंतर है.

रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के प्रोफेसर सुब्रत मंडल ने बताया कि बंगाल की सदियों पुरानी पारंपरिक दुर्गापूजा भाद्र मास के कृष्णपक्ष की नवमी को ही शुरूहो जाती है. हिसाब से यह पितृ पक्ष में ही पड़ती है. कोलकाता के शोभाबाजार राजबाड़ी, बांकुड़ा जिले के विष्णुपुर के प्रसिद्ध राजपरिवार की दुर्गा पूजा भी इसी दिन से शुरू हो जाती है. इसके बाद षष्ठी के दिन मां दुर्गा का बोधन होता है. इसमें मां दुर्गा का आह्वान किया जाता है और बेल के पेड़ की पूजा की जाती है. सप्तमी के दिन नवपत्रिका पूजा होती है. इस नवपत्रिका पूजा में धान, मान अरवी, अरवी, हल्दी का पेड़, जयंती, अशोक, अनार की डाली और बेल की डाली को केले के पेड़ के साथ बांधकर पूजा की जा जाती है. उसके बाद गंगा में स्नान करवाया जाता है. ऐसा कहा जाता है कि नवपत्रिका पूजा मां दुर्गा के नौ रूपों की प्रकृति की शक्ति स्वरूपा पूजा है. उसके बाद अष्टमी नवमी की संध्या को संधि पूजा होती है. दशमी के दिन पारंपरिक रूप में माता दुर्गा का विसर्जन होता है.







