क्यों गुदवाती हैं महिलाएं गोदना? शादी-संतान की निशानी या 2000 साल पुरानी परंपरा, जानें टैटू से कितना है अलग
Jul 24, 2024, 18:51 IST
आधुनिक जीवन में लोग धीरे-धीरे गोदना की परंपरा को भूलते जा रहे हैं, जो कि हजारों साल पुरानी मानी जाती है। यह परंपरा आदिवासी समूहों से जुड़ी हुई है और उनके लिए यह एक महत्वपूर्ण विरासत है। गोदना के माध्यम से आदिवासी समुदाय अपनी परंपराओं को सहेज कर रखते हैं। अन्य समाज की महिलाएं भी इस परंपरा का पालन करती रही हैं।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय की शोध छात्रा प्रीति रावत ने गोदना पर शोध किया है। उन्होंने इस परंपरा के महत्व और इसके इतिहास पर गहन अध्ययन किया है। प्रीति बताती हैं कि गोदना एक ऐसी परंपरा है जिसके तहत महिलाओं और पुरुषों के शरीर पर विशेष नुकीली सुई के माध्यम से स्याही से विभिन्न आकृतियाँ बनाई जाती हैं। यह परंपरा मुख्य रूप से आदिवासियों में प्रचलित रही है, विशेषकर सावन के महीने में।
2000 साल पुरानी परंपरा
प्राचीन इतिहास के अनुसार, गोदना की परंपरा लगभग 2000 साल पुरानी है। इसे शैल चित्रकला के समय का माना जाता है। यह जनजातीय समुदायों में बेहद प्रचलित था और इसे अपने जनजातीय चिन्ह या संस्कार के लिए बनवाया जाता था। गोदना में विभिन्न जानवरों के चिन्ह, बिच्छू, जालीदार पान के पत्ते, और मोर आदि की आकृतियाँ बनाई जाती थीं।
गोदना के पीछे की मान्यताएँ और कहानियाँ
गोदना की परंपरा के पीछे कई मान्यताएँ और कहानियाँ हैं। आदिवासी समाज में इसे मातृत्व शक्ति से जोड़ा जाता है। माना जाता है कि शादी से पहले महिलाओं के हाथ पर गोदना बनवाया जाता था ताकि यह पता चल सके कि वे मातृत्व के दर्द को सहन कर सकती हैं या नहीं। दूसरी मान्यता यह है कि मृत्यु के समय शरीर पर कोई आभूषण नहीं जाता, लेकिन गोदना एकमात्र ऐसा 'जेवर' है जो मृत्यु उपरांत भी साथ रहता है।
जीवन के विभिन्न चरणों का प्रतीक
महिलाएं अपने जीवन के विभिन्न चरणों को गोदना के माध्यम से शरीर पर अंकित करती थीं। जैसे संतान की उत्पत्ति पर एक विशेष गोदना, शादी पर दूसरा गोदना, और संतान की संतान की उत्पत्ति पर तीसरा गोदना। इस प्रकार, वे अपने जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को गोदना के माध्यम से मनाती थीं।
शोध का विस्तार
प्रीति रावत ने अपने शोध में मुख्य रूप से सोनभद्र, पंचमुखी में रहने वाले गोंड, बैगा, खरवार, और घासी जनजातियों पर अध्ययन किया है। वे अपने शोध का दायरा और बढ़ाने की योजना बना रही हैं और अन्य जनजातियों के बीच जाकर गोदना की परंपरा पर और अधिक जानकारी जुटाने का इरादा रखती हैं। प्रीति स्पष्ट करती हैं कि गोदना और आज के जमाने में फैशन बने टैटू में कोई समानता नहीं है; दोनों बिल्कुल अलग विधाएँ हैं।