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गुरु पूर्णिमा विशेष : गुरु मौन ईश्वर की अभिव्यक्त वाणी हैं

गुरु वही दिव्य द्वार हैं जिनसे होकर ईश्वर हमारे जीवन में प्रवेश करते हैं। यदि हम अपने मन, इच्छा और चेतना को गुरु से मेल नहीं कराते, तो संभव है कि स्वयं ईश्वर भी हमारी सहायता करने में असमर्थ हो जाएँ। आज के समय में यह मान लिया गया है कि शिष्य अपने पूर्ण स्वतंत्र निर्णय से गुरु को अपनी इच्छाशक्ति अर्पित करता है, लेकिन यह समर्पण कोई कमजोरी नहीं, बल्कि गुरु की अनन्त करुणा में अटूट आस्था का प्रतीक है।

स्वामी श्रीयुक्तेश्वर ने कहा था, “स्वतंत्र इच्छा का अर्थ केवल पूर्वजन्म या जीवन की आदतों के आधार पर प्रतिक्रिया करना नहीं है।” दरअसल, अधिकांश लोग जीवन में अपनी इच्छाशक्ति का रचनात्मक प्रयोग नहीं करते—चाहे वे संकट में हों, दुःख में हों या प्रसन्नता में। वास्तविक स्वतंत्रता तब मिलती है जब व्यक्ति अहंकार के बंधन से मुक्त होकर अनन्त चेतना, सर्वव्यापक प्रेम और दिव्य ज्ञान की ओर उन्मुख होता है—जिसे सच्चे गुरु की शिक्षाओं द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है।

 गुरु पूर्णिमा विशेष : गुरु मौन ईश्वर की अभिव्यक्त वाणी हैं

“गुरु” शब्द दो भागों से मिलकर बना है: “गु” यानी अंधकार और “रु” यानी उसे मिटाने वाला। गुरु वह प्रकाश स्रोत हैं जो जन्मों-जन्मों तक हमें माया के भ्रम से बाहर निकालते हैं और आत्मबोध के पथ पर ले जाते हैं, जब तक हम अपने सत्यस्वरूप तक न पहुँच जाएँ।

तो, एक व्यक्ति सच्चे गुरु को कैसे प्राप्त कर सकता है? कहा गया है कि गुरु की खोज शिष्य नहीं करता—बल्कि गुरु स्वयं शिष्य को खोजते हैं। जब किसी साधक के भीतर ईश्वर की प्राप्ति की तड़प अत्यंत प्रबल हो जाती है, तब ईश्वर उसकी आंतरिक पुकार का उत्तर एक सच्चे गुरु को भेजकर देते हैं, जो शिष्य को आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाने वाले मार्ग पर अग्रसर करते हैं। ऐसे गुरु ईश्वर की इच्छा से धरती पर आते हैं और उनका जीवन व संदेश ईश्वर की वाणी बन जाता है।

 गुरु पूर्णिमा विशेष : गुरु मौन ईश्वर की अभिव्यक्त वाणी हैं

गुरु द्वारा प्रदान की गई साधना ही वह नौका है जिससे शिष्य माया रूपी सागर को पार करता है। गुरु-शिष्य का यह संबंध केवल भौतिक जगत तक सीमित नहीं होता—सच्चे गुरु की चेतना अनंत होती है और वे सदैव अपने समर्पित शिष्य के साथ रहते हैं, चाहे वे शरीर में हों या नहीं।

श्री श्री परमहंस योगानन्द एक ऐसे ही दिव्य गुरु थे जिन्होंने क्रियायोग के वैज्ञानिक पथ को विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी के निर्देश पर 1917 में भारत में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया (वाईएसएस) और 1920 में अमेरिका में सेल्फ-रियलाइज़ेशन फेलोशिप (एसआरएफ) की स्थापना की, ताकि आत्म-साक्षात्कार के इस प्रभावशाली मार्ग को संसार भर में फैलाया जा सके।

 गुरु पूर्णिमा विशेष : गुरु मौन ईश्वर की अभिव्यक्त वाणी हैं

योगानन्दजी के अनुसार, क्रियायोग एक गहन मनोदैहिक तकनीक है, जो रक्त से कार्बन को हटाकर उसमें ऑक्सीजन भरती है, जिससे वह प्राण में परिवर्तित होती है। इस प्राणशक्ति के माध्यम से योगी शरीर की क्षीणता को नियंत्रित कर सकता है, यहाँ तक कि उसे रोक भी सकता है।

एसआरएफ और वाईएसएस आज भी सत्य की खोज में लगे साधकों को आत्म-साक्षात्कार गृह अध्ययन पाठ्यक्रम के माध्यम से क्रियायोग की विधियों का प्रशिक्षण प्रदान कर रहे हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यदि किसी जिज्ञासु की ईश्वर को जानने की तृष्णा प्रबल हो, तो गुरु स्वयं उसे मार्ग दिखाने के लिए प्रकट होते हैं।

संत कबीर ने सत्य ही कहा था:
"धन्य वह शिष्य है, जिसे सच्चा गुरु मिल गया।"

अधिक जानकारी के लिए: yssofindia.org

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